Menu
blogid : 2486 postid : 16

गै़रज़िम्मेदार हो गया है इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया

प्रेम रस - जागरण जंकशन
प्रेम रस - जागरण जंकशन
  • 13 Posts
  • 53 Comments
सनसनी पैदा करना ही एकमात्र लक्ष्य बन कर रह गया है इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया का
 
 
हमारे देश का इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया टीआरपी के फेर में पड़ कर गै़रज़िम्मेदार होता जा रहा है, जिसका ताज़ा उदाहरण हाल में संपन हुआ विश्व कप आयोजन है। एक ओर फाइनल मैच जीतने से पहले जहां पूरा मीडिया भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को पूरी तरह अक्षम सिद्ध करने पर तुला हुआ था, उनको खलनायक के तरह प्रायोजित किया जा रहा था। पियूष चावला को खिलाने जैसे मुद्दों पर ऐसे शब्दबाण चलाए जा रहे थे, जैसे न्यूज़ एंकर स्वयं भारतीय कप्तान से अधिक चतुर खिलाड़ी हो। हालांकि पियूष चावला की प्रतिभा में किसी को शक नहीं है, लेकिन हर खिलाड़ी हर समय नहीं चलता है और केवल इसी डर से किसी प्रतिभावान खिलाड़ी को बिना मौका दिए बाहर नहीं बैठाया जा सकता है। फिर किसी खिलाड़ी को मैच में खिलाना अथवा ना खिलाना उस दिन की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। वहीं दूसरी ओर भारतीय टीम के विश्वकप जीतने पर यही मीडिया धोनी के द्वारा उठाए गए साहसिक कदमों का गुणगान करते नहीं थक रहा है। देखने से साफ पता चलता है कि लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ माना जाने वाली पत्रकारिता का यह हिस्सा आजकल केवल ब्रेकिंग न्यूज़ में विश्वास रखता है। कुकरमुत्तों की तरह उग गए चैनल्स की भीड़ सनसनी पैदा करने की होड़ में एक दूसरे से आगे निकल जाना चाहती है। वहीं उपभोक्तावाद की दौड़ में शब्दों और विषय के चयन में मर्यादाओं को ताक पर रखा जा रहा है।
भारत-पाकिस्तान के मैच को युद्ध की तरह दर्शाकर भावनाओं का खेल खेला जा रहा था, ढूंढ-ढूंढकर खिलाड़ियों के बीच हुई तकरार के विडिओ को बार-बार दिखाया जा रहा था। यहां तक कि स्टूडियों में बैठे पूर्व खिलाड़ियों से उगलवाया जा रहा था कि मैदान में कैसे-कैसे अपशब्दों का प्रयोग होता है। और यह सब केवल न्यूज़ चैनल्स की टी.आर.पी बढाने के उद्देश्य से क्या जा रहा था? कई चैनल्स सौ घंटे के एपिसोड चला कर यह दर्शाना चाहते थे कि उनके लिए देश में और कोई खबर अब बची ही नहीं है? सरकार पर चलने वाले भ्रष्टाचार के सभी तीरों की धार कुंद हो गई थी या फिर देश में बड़ी से बड़ी घटना-दुर्घटना चैनल्स को बड़ी नहीं लग रही थी? भारत-पाक मैच के दरमियान युद्ध जैसे हालात पैदा करके लोगों को बार-बार टी.वी. चैनल्स खोलने के लिए ललचाना क्या पत्रकारिता कहा जा सकता है?
  
भारत ही नहीं विश्व के महान खिलाड़ी माने जाने वाले सचिन तेंडुलकर को क्रिकेट का भगवान बताकर हर मैच से पहले शतकों के शतक की भविष्यवाणी की जा रही थी। कैसी बचकानी सोच है? खिलाड़ी केवल खिलाड़ी होता है, किसी खिलाड़ी को क्रिकेट के भगवान के रूप में महिमा मंडित करना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? क्या जवाब होगा अगर इनसे मालूम किया जाए कि सचिन केवल एक खिलाड़ी ना होकर क्रिकेट के भगवान हैं तो आखिर उनका शतकों का शतक क्यों नहीं लगा? इससे यह भी पता चलता है कि इन चैनल्स की अपनी कोई सोच है ही नहीं, मुंह से शब्द निकलते हैं तो केवल बाज़ार का रुख देखकर। 
मीडिया के इस अंग में से अधिकतर को अन्ना हजारे जैसी किसी शख्सियत अथवा भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे से मतलब नहीं है, इन्हें तो केवल अपनी दुकान चलाने के लिए रोज़ कोई नायक अथवा खलनायक चाहिए। इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया के बारे में मशहूर है कि यह जिसे चाहे अर्श पर बैठा दे और जिसे चाहे फर्श पर ले आए। शायद इसी इमेज का फायदा उठाया जा रहा है और इसी कारण भरष्टाचार के आरोपों की उँगलियाँ इस ओर भी उठ रही हैं। क्या पत्रकारिता के इस हिस्से को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ जैसी श्रेंणी में रखा जा सकता है?

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh